मैन्यूफेक्चरिंग एंड मटेरियल इंजीनियरिंग से एमटेक किया लेकिन शिक्षण को अपनाया
होनहार बिरवान के होत चिकने पात। ऐसे होनहारों के पारखी हैं कानपुर के आईआईटीअन देवेश चौबे। जांजगीर-चांपा की 'आकांक्षा' योजना से जुड़कर सरकारी स्कूल के बच्चों को कोचिंग दे रहे देवेश इसे समाज-सेवा मानते हैं। उनका कहना है कि हरेक विद्यार्थी खास होता है। जरूरत है तो केवल उसे तराशने की। यही काम वे कर रहे हैं। समाज को कुछ देने का। उनके साथ पढ़े कई दोस्त मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब कर रहे हैं, लेकिन देवेश को तो यहीं खुशी मिलती है।
उत्तरप्रदेश में मथुरा के पास छोटा सा गांव है बाद। देवेश के पिता एसके चौबे वहीं की रेलवे में काम करते थे। कालोनी में कुल जमा सौ लोग रहते। वहीं के स्कूल पढ़ाई शुरू हुई। गांव के माहौल में 10वीं-12वीं तक पढ़ा। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए प्रतियोगी परीक्षा पास की। यूपी में 2000वां रैंक आया। झांसी के बीआईटी कॉलेज में दाखिला मिल गया। खूब मेहनत की और 2014 में बीटेक कंप्लीट कर आईआईटी के लिए ट्राई किया। मेहनत रंग लाई जब 2016 में आईआईटी कानपुर ज्वाइन किया। वहां मैन्यूफेक्चरिंग एंड मटेरियल इंजीनियरिंग में मास्टर डिग्री हासिल की।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले देवेश ने बीटेक करने के बाद कोटा में मोशन एजुकेशन एकेडमी ज्वाइन की। यहीं बच्चों के साथ केमिस्ट्री मिली और फिजिक्स पढ़ाने का सिलसिला शुरू हुआ। देवेश का कहना है कि कंपनी के साथ कोलेबोरेशन के बाद आठ आईआईटीअन यहां टीचिंग जॉब नहीं कर रहे बल्कि समाज सेवा कर रहे हैं। यहां के बच्चों में काबिलियत है।
मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में छोटा सा गांव है पिछोर। यह देवेश का पैत्रिक गांव है। यहां उनकी जमीन है। दादा-परदादा किसानी से जुड़े रहे। रेलवे में नौकरी लगने के बाद पिता जी मथुरा के गांव बाद में रहने लगे। स्कूल की पढ़ाई के दौरान बीटेक-एमटेक का ज्ञान नहीं था। लगता था कि बीएससी करके टीचर बन जाएंगे। वही आखिरी मंजिल नजर आती थी। बस यही सोचकर टीचिंग का फील्ड चुना। आज गांव के बच्चों को जानकारी दे रहे हैं। उन्हें गाइड कर रहे हैं। जब बच्चे सवाल पूछते हैं तो सुकुन मिलता है। महसूस होता है कि मैं किसी के काम आ रहा हूं।
जांजगीर-चांपा में चलाई जा रही आकांक्षा योजना होनहारों के लिए फायदेमंद है। तब हमें ऐसी सुविधा नहीं मिली थी। आज छत्तीसगढ़ सरकार फ्री में कोचिंग दे रही है। हॉस्टल का खर्च उठा रही है। जिला पंचायत परिसर में आकांक्षा परियोजना के तहत लड़के-लड़कियों का अलग हॉस्टल है। यहां पढ़ाई के अलावा उनकी सेहत का भी ध्यान रखा जाता है।
देवेश कहते हैं कि प्राचीन समय में गुरुकुल की परंपरा थी। बच्चे अपने मां-बाप से दूर रहकर पढ़ाई किया करते थे। आकांक्षा के जरिए इसी परंपरा ने मूर्तरूप लिया है। सप्ताह में छह दिन पढ़ाई के बाद सातवें दिन रविवार को परिजन आते हैं और बच्चों से मिलकर लौट जाते हैं। हम खुद बच्चों के साथ हॉस्टल में रहते हैं। मैंने तो हरेक बच्चे से कहा है कि जब भी किसी सवाल को लेकर डाउट हो उसे फौरन पूछें। बच्चे टैलेंटेड हैं। मुझे विश्वास है कि इस बार यहां के ज्यादा से ज्यादा बच्चों का इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में दाखिला होगा।
देवेश का कहना है कि वे अपने परिवार में सबसे बड़े हैं। उनके बाद एक बहन और एक भाई है। मैं अपने भाई-बहन को भी इंजीनिरिंग और मेडिकल की पढ़ाई के लिए प्रेरित करता हूं। आज मेरा परिवार आगरा में रहता है और मैं उनसे दूर हूं, लेकिन आकांक्षा के बच्चों से मिलने के बाद इस दूरी का एहसास नहीं होता। यह भी मेरा परिवार है और मेरी पूरी कोशिश है कि मैं अपना शत-प्रतिशत यहां दूं।