October 16, 2018

10वीं में मिली साइकिल तो बंद हुई आनाकानी, 11वीं की पढ़ाई में नहीं हो रही परेशानी, ऐसी है हिमेश्वरी की कहानी

बालोद जिले के सोहंदा गांव में रहने वाली हिमेश्वरी की कहानी कुछ अलग है। प्राइमरी स्कूल गांव में ही था तो खेलते-कूदते पढ़ाई हो गई। फिर मिडिल स्कूल की पढ़ाई के लिए परसौदा गांव तक जाने एक किमी का सफर तय करना पड़ा। थोड़ी दिक्कत तो हुई पर एहसास नहीं हुआ। आठवीं पास कर जैसे ही झलमला के हाईस्कूल में एडमिशन लिया तो पांच किमी का यह रास्ता उसे खलने लगा। घर में साधन नहीं था। वह अपनी सहेली प्रीति के साथ स्कूल आना-जाना करती थी। जिस दिन सहेली छुट्‌टी पर रहती उस दिन उसे पैदल ही जाना पड़ता था या जबरन छुट्‌टी लेनी पड़ती थी।\

सालभर हुई इस परेशानी के बाद जो जैसे उसने पढ़ाई छोड़ने का मन ही बना लिया। वह ठान चुकी थी कि अब स्कूल नहीं जाएगी, बल्कि घर में ही मां का हाथ बंटाएगी। तभी सरस्वती योजना के तहत स्कूल में साइकिलें बांटी गईं। हिमेश्वरी सिन्हा को भी एक मिली। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। इसके बाद उसने अपनी ही साइकिल से स्कूल आना-जाना किया। आज भी कर रही है।फिलहाल वह 11वीं कक्षा की छात्रा है। खूब पढ़कर डॉक्टर बनना चाहती है। उसका कहना है कि डॉक्टर नहीं बनी तो नर्स जरूर बनूंगी। मरीजों को तड़पता देखना उसे अच्छा नहीं लगता। उनका इलाज करना चाहती हूं।

जहां तक हिमेश्वरी के परिवार का सवाल है। पिता रामकुमार सिन्हा दूसरों के खेतों में काम करते हैं। इसी मजदूरी से पेट पलता है और बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी इसी से पूरा हो रहा है। बड़ी बेटी दुर्गेश्वरी कक्षा 12वीं में है और बेटा नागेश्वर 9वीं का छात्र है। मां सुरजोतिन बाई घर का काम तो करती ही है, किचन के बजट का बोझ उठाने अपने पति के साथ मजदूरी करने भी जाती हैं। हिमेश्वरी की इच्छा है कि वह मेडिकल फिल्ड में जाकर लोगों की सेवा करे और घर की आर्थिक दशा को सुधारने में भी सहायक हो। उसे लगता है कि सरस्वती योजना के तहत अगर साइकिल नहीं मिलती तो वह इतना सोच भी नहीं पाती। शायद उसे भी मजदूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ता।

सबसे बड़ी बात ये कि गांव से पांच किमी की दूरी पैदल तय करने में थकान तो होती ही थी, डर भी लगता था। साइकिल मिलने के बाद उसका आत्मविश्वास है कि वह आगे बढ़ेगी। हिमेश्वरी की तरह बालोद जिले की कितनी ही लड़कियां आज खुद की साइकिल से स्कूल आना-जाना कर रही हैं और वे अपने पिता या भाई पर निर्भर नहीं हैं। साइकिल मिलने के बाद वे अपने घर के कामकाज में भी हाथ बंटा रही हैं। कुछ लड़कियां तो छोटे-भाई बहनों को स्कूल भी छोड़ने जाती हैं। हिमेश्वरी ने बताया कि उसके गांव की तकरीबन तीन-चार लड़कियां ऐसी हैं, जिनके घर में आवाजाही के लिए कोई संसाधन नहीं था। साइकिल आने के बाद सुविधा मिली।

सरकार ने सरस्वती योजना की शुरुआत ही इसीलिए की कि दूर गांवों से आने वाली छात्राएं खुद पर निर्भर हो सके। पढ़ाई की रुचि रखने वालों को मन मारकर घर में न बैठना पड़े। इसी चिंता के साथ मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह ने हाईस्कूल की छात्राओं को साइकिल बांटने की योजना बनाई। सरस्वती साइकिल योजना 2004-05 में शुरू हुई। तब से अब तक बालोद, गुंडरदेही, डौंडी,गुरूर आदि की हजारों छात्राएं लाभान्वित हो चुकी हैं। शुरुआत में साइकिल मंगाकर बांटे गए। अब साइकिल की राशि छात्राओं के खातें में जमा की जाती है ताकि छात्राएं अपना मन पसंद साइकिल खरीद सकें।

छत्तीसगढ़ में वर्ष 2000 में भारत के कई अन्य राज्यों की तुलना में स्कूल छोड़ने वालों का अनुपात अधिक था। शैक्षिक वर्ष 2005-06 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार छत्तीसगढ़ में 20% से अधिक छात्रों ने माध्यमिक स्तर पर स्कूल छोड़ दिया था। सरकार कई कदम उठा रही है कि कोई स्कूल ना छोड़े, जिनमें से राज्य सररकार की सरस्वती साइकिल योजना एक उपाय है, जिससे लड़कियों को स्कूली शिक्षा जारी रखने में मदद मिल रही है।

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